शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

अपना सा परदेश

यहे परदेश अपना सा लगता है
जब सूरज को वो गर्मी देते देखती हु
जब चाँद को प्यार बरसते देखती हु
बच्चो की अठखेलिया देखती हु
यहे परदेश अपना सा लगता है

रिमझिम बारिश की बूँद महसूस करती हु
कोयल को गीत जब सुनती हु
लोगो को हस्ता हुआ देखती हु
जब बाज़ार जाती हु सामान खरीदती हु
यह परदेश अपना सा लगता है

लोगो को पूजा करते देखती हु
सड़क पर चलते हुए रुक जाती हु
जब घास पर चलती हु
जब घर में खाना बनती हु
यह परदेश अपना सा लगता है

जब अपने प्रभु की भक्ति करती हु
अपने पति को छोड़ने जाती हु
अपने बच्चे को तयार करती हु
मेहमान का स्वागत करती हु
यह परदेश अपना सा लगता है

समन्दर को बाँट कर रेखा बना ली हो देश ने
पर दिल की कोई सीमा नहीं होती
खुशी की कोई जगह नहीं होती
गम का कोई रास्ता नहीं होता
सम्मान का कोई भाव नहीं होता
सोच की कोई परिभाषा नहीं होत्ती
Burai ke लिए देश की नहीं ज़रूरत होती
भगवान् का कोई ठिकाना नहीं होत्ता ।

8 टिप्‍पणियां:

स्वप्न मञ्जूषा ने कहा…

sundar bhav hain !!!

निर्मला कपिला ने कहा…

रीतु जी बिलकुल सही कहा आपने
समन्दर को बाँट कर रेखा बना ली हो देश ने
पर दिल की कोई सीमा नहीं होती
खुशी की कोई जगह नहीं होती
गम का कोई रास्ता नहीं होता
सम्मान का कोई भाव नहीं होता
सोच की कोई परिभाषा नहीं होत्ती
Burai ke लिए देश की नहीं ज़रूरत होती
भगवान् का कोई ठिकाना नहीं होत्ता ।
बहुत सुन्दर रचना है बधाइ

Mishra Pankaj ने कहा…

sundar rachanaa

Mithilesh dubey ने कहा…

बहुत खुब, सुन्दर रचना। बधाई

प्रमोद ताम्बट ने कहा…

हिन्दी की त्रृटियों के कारण कविता का आनंद थोड़ा बाधित होता है। इसका कुछ कीजिए रितु जी।
बाकी रचना अत्यंत सुन्दर है।
प्रमोद ताम्बट
भोपाल
www.vyangya.blog.co.in

हेमन्त कुमार ने कहा…

बेहतरीन । आभार ।

संगीता पुरी ने कहा…

बहुत बढिया रचना .. बहुत बहुत बधाई !!

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत उम्दा भाव!! अच्छा लगा पढ़कर.