मंगलवार, 31 जनवरी 2012

लम्हा लम्हा टूटी बिखरती रही है ज़िन्दगी

लम्हा लम्हा टूटी बिखरती रही है ज़िन्दगी

 तड़पती सी एक पर्छाइए  कदी है ज़िन्दगी
 खो गयी है  जो चाहत का नाम था
  कुछ  डूब गया जो मेरी चाहत का समंदर था
  आज तो सपने देखने से भी डरता है मन
 रोता है न हँसता है टीस  सी उठती  है

 ख़ामोशी  डरती है अपना भी पराया सा लगता है
 एक खौफ रहता है कुछ छुटने का
 डरता है हर सपना, खुशियाँ कापती  है
 सब बदल गया बस एक अपनी जगह तलाशती है

असमान में छिपने का मन करता है
जीवन प्रवाह को लहरों की तरह महसूस किया है
धरती देख सामने का मन  होता है
सूरज की किरणों  में गुम नहीं हो सकती
इन सबको टटोलती सी फिर एक
बार निकल पड़ती हु अनजानी रहो पे ....
कुछ अस को छोड़ते हुए