रात के सन्नाटे में अपनी तन्हाई से कुछ यूँ बात हुई
मन के गुबार और उफान में अफरातफरी ढेर उथलपुथल के बाद
एक सुकून और तृप्ति आ गयी
जाने क्यों यह अँधेरा अपना सा लगता है
सुनी रात में नल के टपकने का एहसास भिगो देता है
सुई की आवाज़ से मन कही छुप जाता है
इन्टरनेट के ज़माने में भी कागज़ कलम की रफ़्तार को मात नहीं दे पाती
टाइपिंग को याद नहीं रखना चाहती वो तो बस बहना चाहती है
भटके विचारों को शब्द में पिरो कर कविता को जनम देती
सुर्ख स्याही में कितने पन्ने लिखे जाते है
बिखरती सूरज की किरणे जब जगती है
तो जीवन की एक शांत और दिल के करीब की सुबह होती है
मन के गुबार और तन्हाई से मिली तृप्ति
पन्नो पे उतारे अक्षर सुबह को जादुई बना देते
ऐसी रात के सार्थकता नया अनुभव होत्ती है
जाने क्यों रात बहुत अपनी सी लगती है
बिखरी चांदनी तारों की छाव में मद्धम रौशनी
मन के जज्बत्तों को बाया करना असं हो जाता है
सूरज की किरण में मन खो जाता है
लम्बे इंतज़ार के बाद तृप्त नीद और सुकून की सुबह नसीब होती है
न जाने क्यों यह रात अपनी सी लगती है
कुछ खट्टे मीठे पल बटने में बहुत होती है
अपने अक्स सी मिलवाती सुबह का चोला नीचे होता और सुहानी धुप का स्वागत
के बाद इसी रात प्यारी लगती है
जीवन की आपाधापी मे इतना खो गए
अपनों से बातें करना भूल गए
स्याह रात कभी नीद चुरा लेती है
अपनी बाँहों में लेकर नयी दुनिया में ले जाती है
मैं उस अकलेपन को पसंद करके खिल जाती हूँ
रात को सहेली मान लेती हूँ
चंचल मन को बांध की चाह नहीं रखती यह रात
अपनी समझदारी पे हंसती और पे रोती
हमेशा साथ बना ही लेती यह रात
रात भर एक सिलसिला चल जाता
फिर सुबह को नया बनाने के लिए
जीवन का एक फलसफा बन जाता है
यह इतना हँसी नहीं पर हर रात आंसू के बाद सुबह रंगीन हो ही जाती है
काले स्याह हो बादल भी होते है पर उनको भी छाटना होता ही है।