शनिवार, 27 अगस्त 2011

क्या लिखू

लेखन की धर चली गयी ,प्यार की बयार खो गयी
 जिंदगी  एक  routine की मोहताज हो गयी 
 अरमानो की टोकरी कोने में रखी मुह चिढाती  है 
काम की फहरिस्त उतनी ही रोज़ मिल जाती है
 अपना शरीर उठाना भी काम लगता है
तन से नहीं मन से हारी है वो
मन की व्याधि इतनी बड़ी होगी 
कौन कभी समझ पाया ?
हर बात की गहरिये नहीं आकी
हर छुट्टी को कुछ नए की आस करती वो
सोमवार तक बुझात्ति आग सी वो...
काम के बोझ से नहीं अपनी उम्मीद से हरी वो
अपने अरमानो को कभी चुपके से झांकती वो
लुकाछिपी की दौड़ में छिपी आगे निकल जाती
अरमानो की टोकरी फिर वही रह जाती