मैंने हर जाने को अपने अक्स में हँसते हुए देखा है
अपनी परछाए रोनी सूरत याद आती है
उम्र के पड़ाव से कुछ छुटे हुए , कुछ छोड़ा है
कदम मिलने की कोशिश तो बहुत की पर पीछे रह गए निशान
उन निशान को भरने की बहुत सोचा है
आज भी कुछ काम कटे है निशान को छिपाने के लिए
पर क्या करे ....हरे हो ही जाते है
हारने नहीं कभी तो हरे होने की क्या चिंता करे
इतनी गहरायी से सोच ले जाएगी
कभी सोचा नहीं था नादानियं नहीं की
इसकी कसक तो है ही
उस दर्द का भी एहसास हो ही जाता है
कितने तकदीर वाले होते है जिनको जन्नत मिल जाती है
हम ने खुद ही नरक का रास्ता इक्तियार कर लिया
पर उन निशान को नहीं मिटाना चाहते
अपनी शान समझते है की
करा नहीं तो क्या सोचा तो
कर पाते तो अच्छा है
नहीं तो दर्द ही अपनी प्रेरणा बना लेते है
ख़ुशी का तो पता नहीं गम को भी अपना लेते है ...
निशान को हरे रखने की वजह ढूंढ़ ही लेते है ...
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