बुधवार, 2 सितंबर 2009

प्रकृति

ऐ सृस्थी के रचयेत अजब सृस्थी तुने रचाई
एक भी समनाता नहीं पाई हर चीज़ ने अपनी अहमियत पाए

सूरज अपने तेज़ से सब फीका कर देता
चांदनी अपनी शीतलता से मन को सुकून देती

बादल पल भर में धूमिल हो जाता कभी मेघ बन बरसता
नदी की कलकल ,समंदर का तूफान
पक्षी के चहचाहट ,पेड़ का पतझड़
बादल की गर्जन ,बिजली की चमक
पशू की चपलता ,भवरो के गुंजन

क्यों मानव को चुना इसके विनाश के

लिए बिना शर्त प्रकृति ने सहारा दिया और

हम इसके संग खिलवाड़ करते जा रहे है ।

4 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

बेहतरीन संदेश समाहित है रचना में..साधुवाद.

M VERMA ने कहा…

बहुत सुन्दर भाव है
प्रकृति के प्रति चिंता जायज़ है.

Himanshu Pandey ने कहा…

शुभ भाव से प्रेरित रचना के लिये धन्यवाद ।

Mithilesh dubey ने कहा…

वाह जी बहुत खुब ।