सोमवार, 31 अगस्त 2009

जीवन भगवन

मन की गुथी खोल रे भगवन
कसा है यह मन
यहे चंचल मन कभी अटके कभी भटके
कभी सवाल करे कभी जवाब दे
कभी हसाए कभी रुलाये
कभी भलाई कर पछताए कभी कपट
कभी जलन दिखाए तो कभी प्यार ।

क्या है यह मन ,गुथी खोल रे भगवन
कभी ऊँचे सपने दिखाए
कभी धरातल दिखाए
अपनों को करे पराया
परयो को अपना
कभी मरने को चाहए
कभी जीवन जीने की चाह जगाये।

महके सारा जीवन
में रोऊँ टीओ सब हसे
कसे है यहे जीवन
सब फसे मोह माया में
मन तो चंचल है
इसकी गुथी खोल रे भगवन ॥

7 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

भगवन ने तो मन दिया है
पर हम मन की भी कहाँ सुनते हैं ?
हम तो तन को ही अपना मानते हैं
मन की सुनने लगें
तो पायेंगे
कि मन हमारा शत्रु नहीं हमारा मित्र है
एक ऐसा मित्र !
जिसे सदा सदा बैरी समझा गया..........
काश ! कोई मन के मन में भी झांक कर देखे...
वह कितना दुखी है हम से....
___आपकी कविता उम्दा है
बधाई !

अनिल कान्त ने कहा…

आप बहुत अच्छा लिखती हैं

Mithilesh dubey ने कहा…

वाह रितु जी बहुत ही सुन्दर रचना, आपकी लेखन विधि शानदार है।

विनोद कुमार पांडेय ने कहा…

बहुत ही बढ़िया लिखा आपने..
सुंदर भाव से भरा...धन्यवाद.

निर्मला कपिला ने कहा…

रितू जी बहुत खूबसूरत् भाव हैं शुभकामनाये

रंजना ने कहा…

Sundar rachna...

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत बढ़िया.