रविवार, 27 जनवरी 2013

क्या क्या हु............?



कभी घर के कोने पड़ा गुलदान हु 
कभी काम की वक्त दिखने की हु
हमकदम के बहुत दूर और न जाने किसके पास हु 
अपने अक्स को देख रहे है पर परछ्यी  से दूर  हु
दुःख को देख के सुख में बदलने के सपने है
कभी अपना कभी उनके चक्र में उलझी हु
अनाड़ी  कभी छोटी कभी बिगड़ी हु
एक कसौटी पे हु हर बार की परीक्षा के लिए
कभी  अपने अस्तित्व के लिए
कभी घर के असित्व के लिए
कभी तारीफ कभी दुद्टकर की
पिता ,पति,बच्चे में पिसती एक दाना हु
कभी किरकरी कभी आटा हु
कभी सख्त कभी नरम हु
क्योंकि में हर पर्सिथी  मेंढल जाती हु 
क्या इसलिए में समझने में मुश्किल  हु ..?
नाम कभी होत्ता नहीं बदनामी में कसर नहीं
घर संभल तो लायक नहीं 
बाहर  संबल तो सुघड़ नहीं
दोनों किया तो घमंडी सही ........
सबकी मानी  तो बुद्धि नहीं
अपनी चलयी तो मगरूर
अगर चालाकी करी तो  सही .......
अच्छी बेटी ,अच्छी बहु और अच्छी माँ बनाना
बहुत ज़रूरी है सारे जनम और पाप मेरे हिस्से के .........
क्योंकि यह सब एक मर्द ने रचाया है
भवर  जाल में हम फसे है
किसी को क्या फर्क
इज्ज़त जाये तो माँ नाराज़
पति नाखुश  तो सास नाराज़  
बच्चा बिगड़े तो माँ का कसूर
सब के पीछे एक नारी
वह !! रे मर्द फुट डालो राज़ करे की नीति अपनायी
चल तेरी माया ने मुझे भी फस लिया .......:)