बुधवार, 19 जनवरी 2011

यह रास्ते













यह तक से वह तक का  रास्ता है
कैसे  सवरेगा जहँ से चले हे वही के वही है
न जहँ बदल  पाए न खुद को
एक ही रास्ते पर रहकर सड़ गए
बहुत  कुछ सोचा  खुद के लिए पर कुछ कर नहीं पाए
आज भी तनहा है कल भी तनहा थे
कुछ भीड़ से भरे  रास्ते  भी सुने लगते है
तनहा चलने की आदत हो गयी भीड़ में भी अपने पराये  लगते है
अपने पराये के मुख नहीं  मिला पाते सब एक भीड़ ही  लगते है
बहुत सोचा था एक जहाँ के लिए आज तो सब सपने लगते है
शायद ख़ुशी के मायने और परिभाषा समझने में जनम लग जाते है
किस्मत को क्या कहें अपने मन पर ही विजय नहीं पा  सकते
सोचा तो बहुत कुछ था पर उसको ही अमल में न ला सके
इसको अपनी हार कहे या अलस या किस्मत इसका भी जवाब न दे सके ...............

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