शनिवार, 22 अगस्त 2009

ख्याल - एक लम्हे का

ऊँचे असमान को देख छिपने को जी चाहता है
धरती देख समाने को जी करता है
बस अब और नहीं मन रमता है
सूरज की किरणों से अपनी जगह टटोलती हूँ
नए सपनो को बुनने के लिए ठोस आधार ढूंढ़ती हूँ
समंदर  अथाह गहरायी  सा यह जीवन अपने में समेट रहा है
ऊपर से निर्मल जीवन अन्दर के तूफान को नहीं पढ़ पा रहा है
एक तड़प उठती है जाने की
फिर जिंदगी अपनी ओर खीच लेती है
जीवन चल निकलता है
एक रूकावट धम से गिरा देती है
बंजर सी बेजार होती यह ज़िन्दगी
चंद टुकडो के खातिर झुठला दिया वजूद को
ख्वाबो के दबे करवा पर बैठे  लोगो की उम्मीद कुचल गया एक लम्हा
फिर एक टूटी ,लाचार,बेबस ,बेइंतहा परीक्षा लेती
अब तो तेरे दर पे मालिक पटक पटक के मर जाने दे
और साहस नहीं ऐसे जीवन जीने का ।

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