इस भीड़ में अपना अक्स टटोलता है
कहीं खो गया मेरा साया
मेरी छोटी सी ख्वाशियों की फेरिस्त
पूरी नहीं हो पाई
जब कोई साया पूछता है तुम कहाँ
में अपनी परछायी और आत्मा से जुदा हु
उस पल ख़ामोशी पुकार रही है
तुम खुद नहीं कोई और हो
एक चोला लपेट कर जी रहे हो
खुली सास में तकलीफ है
यहं सपन्दन की अभिव्यक्ति है
एक तड़प है पंख न पसारने की
बेचनी है ऊँचा उठने की
जज़बात की कद्र की चाहत
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