बुधवार, 24 अक्टूबर 2012

नयाअवतार



ज़मी की सख्क्त  परतों ने 
एक बार फिर खोल  ही  दिया 
मुझे बोल ही दिया क्यों छिपी  हु
निकल आओ मुझे भी परिवर्तीत  होंना है
और यही समय की मांग है
बरसो से बंधी थी आज फिर बहार हु
कल फिर दबी होगी पर तुम क्यों आ गए ?
परेशां न हो अपनी ताकत को पहचानो
बच कर निकलना नहीं सामना करना सीखो
 अपनी   अंगुली को अपना सहा बना लो
 निकल फेंको अपने डर को
 फिर से नयी मंजिल बनो अपने
 मन अपने के अंध तमस में सफ़ेद लकीर खीच दो
 मिटटी में शक्ति और सोने की ताप को पिघला 
मत सुनो इस अंधी लूली लगड़ी  दुनियाँ की
 आस्था रखो अपने ऊपर प्रतिभा की कवच को
  कल कर नयाअवतार लो