एक बार फिर खोल ही दिया
मुझे बोल ही दिया क्यों छिपी हु
निकल आओ मुझे भी परिवर्तीत होंना है
और यही समय की मांग है
बरसो से बंधी थी आज फिर बहार हु
कल फिर दबी होगी पर तुम क्यों आ गए ?
परेशां न हो अपनी ताकत को पहचानो
परेशां न हो अपनी ताकत को पहचानो
बच कर निकलना नहीं सामना करना सीखो
अपनी अंगुली को अपना सहा बना लो
निकल फेंको अपने डर को
फिर से नयी मंजिल बनो अपने
मन अपने के अंध तमस में सफ़ेद लकीर खीच दो
मिटटी में शक्ति और सोने की ताप को पिघला
मत सुनो इस अंधी लूली लगड़ी दुनियाँ की
आस्था रखो अपने ऊपर प्रतिभा की कवच को
कल कर नयाअवतार लो