यहे परदेश अपना सा लगता है
जब सूरज को वो गर्मी देते देखती हु
जब चाँद को प्यार बरसते देखती हु
बच्चो की अठखेलिया देखती हु
यहे परदेश अपना सा लगता है
रिमझिम बारिश की बूँद महसूस करती हु
कोयल को गीत जब सुनती हु
लोगो को हस्ता हुआ देखती हु
जब बाज़ार जाती हु सामान खरीदती हु
यह परदेश अपना सा लगता है
लोगो को पूजा करते देखती हु
सड़क पर चलते हुए रुक जाती हु
जब घास पर चलती हु
जब घर में खाना बनती हु
यह परदेश अपना सा लगता है
जब अपने प्रभु की भक्ति करती हु
अपने पति को छोड़ने जाती हु
अपने बच्चे को तयार करती हु
मेहमान का स्वागत करती हु
यह परदेश अपना सा लगता है
समन्दर को बाँट कर रेखा बना ली हो देश ने
पर दिल की कोई सीमा नहीं होती
खुशी की कोई जगह नहीं होती
गम का कोई रास्ता नहीं होता
सम्मान का कोई भाव नहीं होता
सोच की कोई परिभाषा नहीं होत्ती
Burai ke लिए देश की नहीं ज़रूरत होती
भगवान् का कोई ठिकाना नहीं होत्ता ।
8 टिप्पणियां:
sundar bhav hain !!!
रीतु जी बिलकुल सही कहा आपने
समन्दर को बाँट कर रेखा बना ली हो देश ने
पर दिल की कोई सीमा नहीं होती
खुशी की कोई जगह नहीं होती
गम का कोई रास्ता नहीं होता
सम्मान का कोई भाव नहीं होता
सोच की कोई परिभाषा नहीं होत्ती
Burai ke लिए देश की नहीं ज़रूरत होती
भगवान् का कोई ठिकाना नहीं होत्ता ।
बहुत सुन्दर रचना है बधाइ
sundar rachanaa
बहुत खुब, सुन्दर रचना। बधाई
हिन्दी की त्रृटियों के कारण कविता का आनंद थोड़ा बाधित होता है। इसका कुछ कीजिए रितु जी।
बाकी रचना अत्यंत सुन्दर है।
प्रमोद ताम्बट
भोपाल
www.vyangya.blog.co.in
बेहतरीन । आभार ।
बहुत बढिया रचना .. बहुत बहुत बधाई !!
बहुत उम्दा भाव!! अच्छा लगा पढ़कर.
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