मंगलवार, 18 अगस्त 2009

सावन

रिमझिम बुँदे ने एक चाह जगा दी
अपने प्रीत की याद दिला दी
नज़र से ओझल  हो लेकिन दिल के करीब हो
आज फिर पहली बारिश याद दिला दी
अलहदा मस्ती मज़े में खो जाते थे
भीग भीग फिर आते थे
ओले गिरने की चाह में असमान निहारते थे
धुप के लूकचीपी में इंद्रधनुष  तकते थे
उन लम्हों को याद करा दी फिर रिमझिम ने
छपक  छपक पेरू का खेल का मज़ा
उस उमर के प्यार का पहला नशा
अंगडाई लेती इच्छा  जगती से बरखा
चंचल मदमस्त करता यहे सावन
काले बदल के बीच में बता सूरज
लहरों का चंचल होता यहे मन
उजली हरियाली से लगते मन के पंख
कितना मदहोश करता है यह सावन ।

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