इस भीड़ में अपने अक्स को ढूंढ़ता है
कहीं खो गया कहीं बिगड़ गया जो मेरा साया था
एक मेरी तम्मना और ख्वाशियों को छोटी सी फेहरिस्त भी पूरी नहीं कर पाई
अपने आसुंओं की सेज
एक खली हाथ के साथ अपनों के साथ
जब कोई साया मुझसे पूछता है तुम कहाँ
मैंने अपनी पर्चायिए और आत्मा से जुदा हु
उस पल ख़ामोशी पुकार कर कहती हु
तुम तुम नहीं कोई और हो जो
एक चोले में लिपट कर जी रहा है
उस घुटन के माहोल में तकलीफ होती है
जहाँ स्पंदन की अभिवयक्ति नहीं होती है
एक तड़प होती है पंख पसारने की
छटपटा हर ताल में है एक मधुर मोतियों को
पिरोने की चाह होती है
आज फिर मेरे दिल में चाहत है
छोड़ दू इससे आजाद हो जाऊ उस जहन में
जहँ सिर्फ मेरा सायाऔर मेरा अक्स मेरे साथ चलता हो......
और एक बार फिर पुकारे की
इन सब में क्या है ...जीवन का दूसरा नाम छीपा है!!!