गुरुवार, 5 जुलाई 2012

अनकही

क्यों हम चाहते हुए भी मन की बातें बोल नहीं पातें .गुस्सा किसी  और पे ..उतरता कहीं और है ...अकेले में बैठ  कर सोचते या पन्नो पर उतरें तो किसी की कोई गलती नहीं होती ...या दोनों लोग गलती के भागीदार होत्तें है .....

बहुत सी अनकही बातें  की मायने तलाशना  चाहती हु 
एक परिवार को खुशियों  से लबरेज़ रखना चाहती थी
 सोचा तो बहुत कुछ  था  पर सब मिलता तो नहीं 
पाना और खोने की चाहत तो बहुत थी सब कुछ आया गया
तमनाये  तो बहुत थी पूरी होने की शर्त नहीं थी
आस पास की मशगुल ज़िन्दगी में दो पल कोई दे तो ख़ुशी होती है
 जो मिला वो  मेरी उम्मीद से  कही जयादा था
 चंद  ख्वाब  की तामीर का आसरा  है
उम्र का फासला दिनों में लम्बा लगता है
सालो में गिनने को काम पूरा करना मुश्किल हो जाता है
 तम्मना  तो अधूरी रह जाती है सबकी
असमान भी काम पड़ता है खवाइश  समटने के लिए
सब कुछ कहने के बाद भी अनकही रह ही जाती है
हर बार कुछ नया कहने के लिए ....